हम सबको रक्षा करनी है, लड़ते हुए जवानों की;
और हमें रखवाली करनी, अन्न भरे खलिहानों की ;
तभी योजनाओं का रथ, आगे आगे बढ़ पायेगा !
तभी मुक्ति-अभिमन्यु हमारा, विजयकेतु फहराएगा !
भूखे हाथों से मशीन का पहिया नहीं चला करता ;
भूखे-प्यासे हाथों में हल, बार-बार उछला करता ;
भूखे सैनिक के स्वर से, कब अरि का उर दहला करता !
भूखे देशों का अम्बर में केतु नहीं मचला करता !
हमको फसल नहीं कटवानी, सरहद पर इंसानों की,
रक्त-वृष्टि से हमें सृष्टि सुलगानी है शैतानों की __
तभी हमारी सत्यकथा को सारा जग पढ़ पायेगा !
देश हमारा गौरव के सोपानों पर चढ़ पायेगा !
संगीनों की नोक, कथाएं कब लिखती अनुराग की ;
हिम शिखरों पर चला बहाने को अरि सरिता आग की ;
हम पद्मिनियों के बेटे हैं, आदत रण के फाग की !
अपनी धरती पर उगती है फसल हमेशा त्याग की !
कफ़न बाँध हम घर से निकले, होड़ लगी बलिदानों की;
जन्मभूमि हित तन, मन, धन देने वाले दीवानों की ;
देखें कौन खोलकर सीना, भारत से भिड़ पायेगा !
हिमगिरी से टकराने वाला मिटटी में मिल जाएगा !!
सरस्वतीकुमार 'दीपक'
जोशीली कविता.वाह.
ReplyDeleteइस ब्लॉग पर आप एक-से-एक कविताएं पोस्ट करती हैं।
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना।
जोश भरती हुई एक देशभक्तिपूर्ण कविता !
ReplyDeleteहम पद्मिनियों के बेटे हैं, आदत रण के फाग की !
ReplyDeleteअपनी धरती पर उगती है फसल हमेशा त्याग की !
बहुत सुन्दर भाव
देखें कौन खोलकर सीना, भारत से भिड़ पायेगा !
ReplyDeleteहिमगिरी से टकराने वाला मिटटी में मिल जाएगा !!
sahi bat.
एक कवि अपने परिवेश के प्रति सजग होता है। वह भूखों और खूब खाकर उनींदे पड़े सत्तासीनों दोनों को ललकारता है। सच्चा कवि अपनी गौरवमय पृष्ठभूमि की याद तो दिलाता ही है,देश के प्रहरियों का मनोबल भी बढ़ाता है।
ReplyDeleteउत्साह उकेरती पंक्तियाँ...
ReplyDeletedeshbhakti se sarabor sarthak kavita
ReplyDeleteमिश्री की डली ज़िंदगी हो चली