Friday 26 August 2011

अभियान गीत




चलो आज इस जीर्ण पुरातन
भव में नव निर्माण करो,
युग-युग से पिसती आई
मानवता का कल्याण करो !

बोलो कब तक सडा करोगे
तुम यों गन्दी गलियों में ?
पथ के कुत्तों से भी जीवन 
अधम संभाल पसलियों में ?

दोगे शाप विधाता को लख
धनकुबेर रंगरलियों में,
किन्तु न जानोगे अपने को 
क्योंकि घिरे हो छलियों में !

कोटि- कोटि शोषित -पीड़ित तुम
उठो आज निज त्राण करो ?
चलो आज इस जीर्ण पुरातन
भव में नव निर्माण करो ?

उठो किसानो ! देखो तुमने
जग का पोषण-भरण किया,
किन्तु तुम्हीं  भूखे सो रहते 
हूक छिपाए, मूक हिया !

रात-रात भर दिन-दिन भर
तुमने शोणित का दान दिया;
मिट्टी तोड़ उगाया अंकुर
ग्राम मरा, पर नगर जिया !

तुम अगणित नंगे भिखमंगे 
अधिक न मन म्रियमाण करो,
चलो, आज इस जीर्ण पुरातन 
भव में नव निर्माण करो ?

व्यर्थ ज्ञान विज्ञान सभी कुछ 
समझो अब है आज यहाँ,
घर में जब यों आग लगी है 
घर की जाती लाज जहाँ !

राज्य तंत्र के यंत्र बने
धनपति करते हैं राज जहाँ,
यह क्या किया पाप तुमने ?
घुटते जीवन के साज यहाँ !

आग फूंक दो कंगालों में 
कंकालों में प्राण भरो !
चलो, आज इस जीर्ण पुरातन 
भव में नव निर्माण करो ?

सोहनलाल द्विवेदी 

Saturday 20 August 2011

ओ देश के मेरे जवान


ओ देश के मेरे जवान




चंद्रमा ओझल न हो जाए
सूर्य ठंडा जल न हो जाए,

इसलिए ओ देश के मेरे जवान
आज तो सिर पर उठा ले आसमान

राह तेरी देखती हैं आंधियां
बिजलियाँ तेरे पगों में खेलतीं,
ये भुजाएं सिन्धु मथती हैं सदा
वार कितने ही समय के झेलतीं !

वीरता वह याद हो आये,
शत्रुता बर्बाद हो जाए,
इसलिए ओ देश के मेरे जवान
फिर उड़ा संसार पर अपने विमान

आग की जंजीर में आज़ाद हो..
तू चिता में मुस्कराता फूल है
फूल है तो शीश पर चढ़, अन्यथा -
पाँव के नीचे धरा की धुल है.

मृत्यु भी अभिमान बन जाए
जन्म भी वरदान बन जाए 
इसलिए ओ देश के मेरे जवान
तीर बनकर फोड़ दे काला निशान .

जीतकर सौन्दर्य मन का विश्व में,
साथ ही तन की विजय भी चाहिए,
गूंजता है सत्य यह इतिहास का 
जन्म लेने को प्रलय भी चाहिए.

सांस हर तूफ़ान हो जाए,
देश आलिशान हो जाए,
इसलिए ओ देश के मेरे जवान
आज फिर बन जा हिमालय सा महान .

एक होकर भी अकेला तू नहीं,
साथ तेरे प्रेम ओ विश्वास है,
तू बहुत कोमल कमल-सा है, मगर ..
वज्र जैसा वक्ष तेरे पास है.

खेत ओ खलिहान भर जाएँ,
देह को बलवान कर जाएँ,
इसलिए ओ देश के मेरे जवान
जाग, बन मजदूर मेहनतकश किशान.

मधुर शास्त्री 

Monday 15 August 2011

आया फिर झूमता 15 अगस्त





आया फिर झूमता 15  अगस्त 

ऋतुओं की बाहों में गुनगुनी हवाएं 
रंगने लगीं मोरपंखी चुनरी दिशाएँ 
धूप सोये किशमिशी महुआ के गाँव में,
सोंधापन लिपट गया बरखा के पाँव में  !

                होंसले तिमिर के आज हुए ध्वस्त 
                आया फिर झूमता 15 अगस्त !

उन्नावी उगे पुखराजी आँखों में 
छंद बुने तितली ने केसर की पांखों में 
उग आयीं मेंड़ों पर अलसाई बाहें
कजरारी कोयलिया ग़ज़ल गीत गाएँ !

                संबोधन भावों के हुए अलमस्त 
                आया फिर झूमता 15 अगस्त !

हंसी लगे मुक्तक सी बहती बयार की 
सपनों में झांक गयी गंध एक प्यार की 
सूरज क्यों बादल का कुमकुमी निबंध 
गीत गीत भोर हुआ किरण हुई छंद !

               कुंठा को आशा ने फिर दी शिकस्त 
               आया फिर झूमता 15 अगस्त !

                                                     सुरेश नीरव

Saturday 13 August 2011

'अग्निपथ'

साथियो नमस्कार !

बहुत दिनों बाद इस ब्लॉग को फिर से शुरू करने की कोशिश जारी है......अब  से मैं भिन्न भिन्न कवियों के कुछ चुने हुए गीत समय समय पर प्रस्तुत करुँगी...आशा है आप अपना सानिध्य बनाये रखेंगे....

तो चलिए सबसे पहले आज प्रस्तुत है हरिवंशराय 'बच्चन' जी की कविता....'अग्निपथ'

Harivansh Rai Bachchan


'अग्निपथ'

अग्निपथ ! अग्निपथ ! अग्निपथ ! 
       वृक्ष हों भले खड़े 
       हों घने हों बड़े 
       एक पत्र छाहं भी 
मांग मत ! मांग मत ! मांग मत !

       तू न थकेगा कभी
       तू न थमेगा कभी
       तू न मुड़ेगा कभी
कर शपथ ! कर शपथ ! कर शपथ !

       यह महान दृश्य है
       चल रहा मनुष्य है
       अश्रु - स्वेद- रक्त से 
लथ - पथ ! लथ - पथ ! लथ - पथ !
अग्निपथ ! अग्निपथ ! अग्निपथ !