धर्म वीर भारती
Tuesday, 11 May 2010
बदलाव
जीवन को सुधारने के लिए सिर्फ आर्थिक ढांचा बदल देने भर की जरुरत नहीं है, उसके लिए आदमी का सुधार करना होगा, व्यक्ति का सुधार करना होगा. वर्ना एक भरे - पूरे और वैभवशाली समाज में भी आज के से स्वस्थ और पाशविक वृतियों वाले व्यक्ति रहेंगे तो दुनियाँ ऐसी ही लगेगी जैसे एक खूबसूरत सजा-सजाया महल जिसमें कीड़े और राक्षस रहते हैं.
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वाह !
ReplyDeleteप्रेरक पंक्तियां । आभार पढवाने के लिए
ReplyDeleteसुन्दर चिन्तन।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
सुन्दर उक्ति/विचार के प्रस्तुतिकरण का आपके द्वारा सराहनीय प्रयास
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
सुबह की शुरुआत इतने अच्छे विचारो के साथ ....
ReplyDeleteराम त्यागी
http://meriawaaj-ramtyagi.blogspot.com/
वाह! बहुत सुन्दर विचार हैं!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विचार प्रस्तुत किया है भारती जी का.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर विचार है। इसपर अमल की आवश्यकता है।
ReplyDelete--------
कौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
सटीक विचार प्रस्तुत किया है....विचारणीय है
ReplyDeleteइन विचारों को हम तक पहुंचाने के लिये शुक्रिया
ReplyDeleteसराहनीय प्रयास..
ReplyDeleteकृपया यह बताये की निम्नलिखित पंक्तिया क्या
जयशंकर प्रसाद जी की है यदि नहीं ,तो किस कवी की है
" इस पथ का उद्देश्य नहीं है शांत भवन में टिक जाना .....
सटीक विचार!
ReplyDeleteकान्ता भारती को छोड़ने के बाद उपजा धवीभा का अन्तर्द्वन्द रचना मे विद्यमान ।
ReplyDeleteकम शब्दों में सम्पूर्ण बात, प्रेरक सन्देश.
ReplyDeleteवाह क्या बात है। आजकल ज्यादातर महल ऐसे ही हैं।
ReplyDeletewah....kya baat hai....behtreen prastuti....
ReplyDeleteसटीक बात
ReplyDeleteप्रेरक पँक्तियाँ धन्यवाद्
ReplyDeleteprernadayi kathya
ReplyDeleteहम बदलेंगे युग बदलेगा की बात ठीक ही कही गई है।
ReplyDeleteprashansniye aur sundar bhi .
ReplyDeleteअनामिका जी यह बहुत सुंदर प्रस्तुति है। पर क्षमा करें,एक अनुरोध है कि इन साहित्यकारों की पंक्तियां पढ़ते हुए उनमें टायपिंग की गलतियां बहुत अखरती हैं। वे कम से कम हों तो बेहतर है। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteदुखांत यह नहीं होता कि आप अपने इश्क के ठिठुरते शरीर के लिए सारी उम्र गीतों के पैरहन सीते रहें. दुखांत यह होता है कि इन पैरहनो को सीने के लिए आपके विचारो का धागा चूक जाये और आपकी सुई (कलम) का छेद टूट जाये.
ReplyDelete....अमृता प्रीतम
एक भरे - पूरे और वैभवशाली समाज में भी आज के से स्वस्थ और पाशविक वृतियों वाले व्यक्ति रहेंगे तो दुनियाँ ऐसी ही लगेगी जैसे एक खूबसूरत सजा-सजाया महल जिसमें कीड़े और राक्षस रहते हैं.
धर्म वीर भारती
अनामिका जी ,
अपने ही लिहाज से सही, आपने जो मोती चुगे हैं; बेसकीमती हैं...ये किसी के कण्ठहार हैं ,किसी के गले में उतरे हुए हैं..
बहुत बढ़िया प्रस्तुति.
उत्कृष्ट संकलन!.... बहुत सुंदर रचना!
ReplyDeleteविडम्बना यही है कि सुधार की सारी अवधारणाएं बाह्याडंबर तक सीमित हैं। यह भी ध्यान रहे कि अंतस् का सुधार बाहरी उपक्रमों से नहीं हो सकता।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विचार प्रस्तुत किया है भारती जी का...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति...!