आज मैं सारा दुख अपने ऊपर उतार लेना चाहता हूँ. आज एक ऐसा सन्नाटा है जो न किसी को आने को आमंत्रित करता है और न किसी को जाने से रोकता है. आज मैं एक ऐसा मैदान हूँ जिस पर की सारी पगडंडियाँ तक मिट गयी हैं. एक ऐसी डाल जिसके सारे फूल झड चुके हों. सारे घोंसले उजड गए हैं. मन में असीम कुंठा और वेदना है . ऐसा कोई नहीं कि मेरे घावों को छू ले तो मैं आंसुओं में बिखर पडूँ.
धरमवीर भारती.
Sunday, 12 September 2010
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मर्मस्पर्शी रचना, क्या बात है
ReplyDeleteइतना भीषण सन्नाटा।
ReplyDeleteबहुत अच्छी पंक्तियाँ चुनी हैं ...आभार
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteराष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश कि शीघ्र उन्नत्ति के लिए आवश्यक है।
एक वचन लेना ही होगा!, राजभाषा हिन्दी पर संगीता स्वारूप की प्रस्तुति, पधारें
बहुत ही मर्मस्पर्शी पोस्ट ......
ReplyDeleteआभार ...
bahut achhi prastuti .........
ReplyDeleteसुंदर पंक्तियां । कितनी बार दुख से बोझिल मन रोना चाहता है पर कोी नही होता आंसू पोंछने वाला ।
ReplyDeleteआपकी शानदार पोस्ट हेतु बधाई।
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाएं!
ReplyDeleteअपने भीतर के इस रूप का प्रकटीकरण सब के वश का नहीं।
ReplyDeleteदुःख की पराकाष्ठा छू लिया है इन पंक्तियो ने..खामोशी को बयाँ करने वाली पंक्तिया...
ReplyDeleteपराये दुखों को समझने वाली आपकी लेखनी अभिनन्दनयोग्य है
ReplyDelete.
ReplyDeleteधावों को छूले तो आंसुओं में बिखर पडूं न जाने कितने अर्थ भरदिये इन छै सात शव्दों में । ’’ कदम कदम पे गमों ने जिसे सम्हाला है उसे तुूम्हारी नवाजिश ने मार डाला है’’ असीम कुंठा और वेदना का यही हल है कि बादल बरस जाये ंतो चित्त थोडा हल्का हो जाये ।यह एक गजल है जिसे लेख के तौर पर लिखा गया है
ReplyDeleteअच्छी पंक्तियाँ
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