Sunday 12 September 2010

सन्नाटा..

आज मैं सारा दुख अपने ऊपर उतार लेना चाहता हूँ. आज एक ऐसा सन्नाटा है जो न किसी को आने को आमंत्रित करता है और न किसी को जाने से रोकता है.  आज मैं एक ऐसा मैदान हूँ जिस पर की सारी पगडंडियाँ तक मिट गयी हैं. एक ऐसी डाल जिसके सारे फूल झड चुके हों. सारे घोंसले उजड गए हैं. मन में असीम कुंठा और वेदना है .  ऐसा कोई नहीं कि मेरे घावों को छू ले तो मैं आंसुओं में बिखर पडूँ.


धरमवीर भारती.

15 comments:

  1. मर्मस्पर्शी रचना, क्या बात है

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  2. बहुत अच्छी पंक्तियाँ चुनी हैं ...आभार

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  3. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

    राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश कि शीघ्र उन्नत्ति के लिए आवश्यक है।

    एक वचन लेना ही होगा!, राजभाषा हिन्दी पर संगीता स्वारूप की प्रस्तुति, पधारें

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  4. बहुत ही मर्मस्पर्शी पोस्ट ......
    आभार ...

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  5. सुंदर पंक्तियां । कितनी बार दुख से बोझिल मन रोना चाहता है पर कोी नही होता आंसू पोंछने वाला ।

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  6. आपकी शानदार पोस्ट हेतु बधाई।

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  7. हार्दिक शुभकामनाएं!

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  8. अपने भीतर के इस रूप का प्रकटीकरण सब के वश का नहीं।

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  9. दुःख की पराकाष्ठा छू लिया है इन पंक्तियो ने..खामोशी को बयाँ करने वाली पंक्तिया...

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  10. पराये दुखों को समझने वाली आपकी लेखनी अभि‍नन्‍दनयोग्‍य है

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  11. धावों को छूले तो आंसुओं में बिखर पडूं न जाने कितने अर्थ भरदिये इन छै सात शव्दों में । ’’ कदम कदम पे गमों ने जिसे सम्हाला है उसे तुूम्हारी नवाजिश ने मार डाला है’’ असीम कुंठा और वेदना का यही हल है कि बादल बरस जाये ंतो चित्त थोडा हल्का हो जाये ।यह एक गजल है जिसे लेख के तौर पर लिखा गया है

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  12. अच्छी पंक्तियाँ

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