Wednesday, 20 January 2010
हमारे संस्कार
हम लोग ना उच्च वर्ग के हैं, ना निम्न वर्ग के. हमारे यहा रुडिया, परम्पराये, मर्यादाये भी ऐसी पुरानी और विषाक्त हैं कि कुल मिलाकर हम सब पर ऐसा प्रभाव पडता हैं कि हम यंत्र मात्र रह जाते हैं. हमारे अंदर उदार और उंचे सपने खतम हो जाते हैं. लेकिन ये भी सच हैं कि जब पूरी व्यवस्था बे-इमान हैं तो हमारी इमानदारी इसी में हैं कि इस व्यस्था पर लादी सारी नैतिक विकृती को भी अस्वीकार करे और उस द्वारा आरोपित सारी झूठी मर्यादाओ को भी. लेकिन हम विद्रोह नही कर पाते, सो नतीजा यह कि समझोता करते हैं. मतलब संस्कारो का अंधानुकरण ..! और ऐसे भले आदमी कहलाये जाते हैं..उनकी तारीफ भी होती हैं, परंतु जिंदगी बेहद करुण और भयानक हो जाती हैं. और सबसे बडा दुख यह कि वह अपने जीवन का यह पह्ळू नही समझते और बैल की तरह तमाम उम्र चक्कर लगाते रहते हैं.
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वक्त के साथ हर चीज़ बदलती है...लेकिन केवल अपनी खुशी या चाहत को सर्वोपरी रख कर हम अपनी नैतिकता को नहीं त्याग सकते...आज घर घर में पुराणी मान्यताएं बदल रही हैं...अंधानुकरण न करें लेकिन जो सहज और सरल हैं उनको ज़रूर माने .आदर्शों को निश्चित करें, अन्यथा पतन स्वाभाविक है
ReplyDeleteसही कहा आपने मगर संगीता जी की बातों से सहमत हूँ
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