सोलवां बरस इश्वर की साजिश की तरह होता है जो जिंदगी के हर वर्ष में कहीं ना कहीं शामिल होता है. यह बचपन की समाधि तोड़ देता है. और जब कोई समाधि टूटती है तो भटकनें का श्राप उसके पीछे पड़ जाता है...हमारे पीछे भी एक सोचों का शाप पीछे पड़ा है. उम्र के सोलवें साल में हर विश्वास पारंपरिक होता है और इसलिए दकियानूसी भी. वास्तव में यह वर्ष आयु की सड़क पर लगा हुआ खतरे का चिन्ह होता है (की बीते वर्षों की सपाट सड़क खतम हो गयी है, आगे ऊँची - नीची और भयानक मोडों वाली सड़क शुरू होने वाली है ). इस वर्ष जाना-पहचाना सब कुछ शरीर के वस्त्रों की तरह तंग हो जाता है . होंठ जिंदिगी की प्यास से खुश्क हो जाते हैं, आकाश के तारे जिन्हें सप्त-ऋषियों के आकार में देख कर दूर से प्रणाम करना होता था, पास जा कर छू लेने को जी करता है. इर्द - गिर्द और दूर पास की हवा में इतनी मनाहियाँ और इतने इनकार होते हैं, इतना विरोध की सांसो में आग सुलग उठती है.
अमृता प्रीतम
Saturday, 13 November 2010
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