Tuesday, 14 February 2012

कर चले हम फ़िदा जान-तन साथियो ...

साथियो बहुत दिनों से ये गीत होंठों पर था...सोचा इसी गीत को आपके समक्ष पेश करू..जानती हूँ आप सब के होंठो पर भी इस गीत के बोल मचलते होंगे....फिर भी बस एक बार फिर से गुनगुना ले...





कर चले हम फ़िदा जान-तन साथियो 
अब   तुम्हारे  हवाले  वतन  साथियो


सांस  थमती गयी, नब्ज़ जमती गयी,
फिर भी बढ़ते कदम को न रुकने दिया.
कट गए सिर हमारे तो  कुछ गम नहीं,
सिर हिमालय का हमने न झुकने दिया 
मरते   मरते   रहा  बांकपन  साथियो.


जिन्दा रहने  के मौसम  बहुत हैं मगर
जान  देने  की  रुत  रोज  आती  नहीं
हुस्न  और  इश्क  दोनों को रुसवा करें 
वह  जवानी  जो खूँ   में  नहाती  नहीं.
आज  धरती  बनी है दुल्हन साथियो


राह   कुर्बानियों  की   न  वीरान  हो 
तुम  सजाते  हो रहना  नए काफिले 
जीत का  जश्न  इस  जश्न  के बाद है,
जिन्दगी मौत  से  मिल  रही है गले,
बाँध लो अपने सिर से कफ़न साथियो !


खींच  दो अपने खूँ से जमीं पर लकीर
इस  तरफ आने  पाए  न रावण कोई
तोड़   दो  हाथ  गर  हाथ  उठने  लगे,
छूने  पाए  न  सीता  का  दामन कोई
राम भी तुम, तुम्ही लक्ष्मण साथियो !

कैफ़ी आज़मी