हम सबको रक्षा करनी है, लड़ते हुए जवानों की;
और हमें रखवाली करनी, अन्न भरे खलिहानों की ;
तभी योजनाओं का रथ, आगे आगे बढ़ पायेगा !
तभी मुक्ति-अभिमन्यु हमारा, विजयकेतु फहराएगा !
भूखे हाथों से मशीन का पहिया नहीं चला करता ;
भूखे-प्यासे हाथों में हल, बार-बार उछला करता ;
भूखे सैनिक के स्वर से, कब अरि का उर दहला करता !
भूखे देशों का अम्बर में केतु नहीं मचला करता !
हमको फसल नहीं कटवानी, सरहद पर इंसानों की,
रक्त-वृष्टि से हमें सृष्टि सुलगानी है शैतानों की __
तभी हमारी सत्यकथा को सारा जग पढ़ पायेगा !
देश हमारा गौरव के सोपानों पर चढ़ पायेगा !
संगीनों की नोक, कथाएं कब लिखती अनुराग की ;
हिम शिखरों पर चला बहाने को अरि सरिता आग की ;
हम पद्मिनियों के बेटे हैं, आदत रण के फाग की !
अपनी धरती पर उगती है फसल हमेशा त्याग की !
कफ़न बाँध हम घर से निकले, होड़ लगी बलिदानों की;
जन्मभूमि हित तन, मन, धन देने वाले दीवानों की ;
देखें कौन खोलकर सीना, भारत से भिड़ पायेगा !
हिमगिरी से टकराने वाला मिटटी में मिल जाएगा !!
सरस्वतीकुमार 'दीपक'