Tuesday 11 May 2010

बदलाव

जीवन को सुधारने के लिए सिर्फ आर्थिक ढांचा बदल देने भर की जरुरत नहीं है, उसके लिए आदमी का सुधार करना होगा, व्यक्ति का सुधार करना होगा. वर्ना एक भरे - पूरे और वैभवशाली समाज में भी आज के से स्वस्थ और पाशविक वृतियों वाले व्यक्ति रहेंगे तो दुनियाँ ऐसी ही लगेगी जैसे एक खूबसूरत सजा-सजाया महल जिसमें कीड़े और राक्षस रहते हैं.
धर्म वीर भारती

26 comments:

  1. प्रेरक पंक्तियां । आभार पढवाने के लिए

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  2. सुन्दर चिन्तन।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  3. सुन्दर उक्ति/विचार के प्रस्तुतिकरण का आपके द्वारा सराहनीय प्रयास
    बहुत सुन्दर

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  4. सुबह की शुरुआत इतने अच्छे विचारो के साथ ....

    राम त्यागी
    http://meriawaaj-ramtyagi.blogspot.com/

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  5. वाह! बहुत सुन्दर विचार हैं!

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  6. बहुत बढ़िया विचार प्रस्तुत किया है भारती जी का.

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  7. सटीक विचार प्रस्तुत किया है....विचारणीय है

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  8. इन विचारों को हम तक पहुंचाने के लिये शुक्रिया

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  9. सराहनीय प्रयास..

    कृपया यह बताये की निम्नलिखित पंक्तिया क्या
    जयशंकर प्रसाद जी की है यदि नहीं ,तो किस कवी की है
    " इस पथ का उद्देश्य नहीं है शांत भवन में टिक जाना .....

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  10. कान्ता भारती को छोड़ने के बाद उपजा धवीभा का अन्तर्द्वन्द रचना मे विद्यमान ।

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  11. कम शब्दों में सम्पूर्ण बात, प्रेरक सन्देश.

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  12. वाह क्या बात है। आजकल ज्यादातर महल ऐसे ही हैं।

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  13. प्रेरक पँक्तियाँ धन्यवाद्

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  14. हम बदलेंगे युग बदलेगा की बात ठीक ही कही गई है।

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  15. अनामिका जी यह बहुत सुंदर प्रस्‍तुति है। पर क्षमा करें,एक अनुरोध है कि इन साहित्‍यकारों की पंक्तियां पढ़ते हुए उनमें टायपिंग की गलतियां बहुत अखरती हैं। वे कम से कम हों तो बेहतर है। शुभकामनाएं।

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  16. दुखांत यह नहीं होता कि आप अपने इश्क के ठिठुरते शरीर के लिए सारी उम्र गीतों के पैरहन सीते रहें. दुखांत यह होता है कि इन पैरहनो को सीने के लिए आपके विचारो का धागा चूक जाये और आपकी सुई (कलम) का छेद टूट जाये.
    ....अमृता प्रीतम
    एक भरे - पूरे और वैभवशाली समाज में भी आज के से स्वस्थ और पाशविक वृतियों वाले व्यक्ति रहेंगे तो दुनियाँ ऐसी ही लगेगी जैसे एक खूबसूरत सजा-सजाया महल जिसमें कीड़े और राक्षस रहते हैं.
    धर्म वीर भारती

    अनामिका जी ,
    अपने ही लिहाज से सही, आपने जो मोती चुगे हैं; बेसकीमती हैं...ये किसी के कण्ठहार हैं ,किसी के गले में उतरे हुए हैं..
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति.

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  17. उत्कृष्ट संकलन!.... बहुत सुंदर रचना!

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  18. विडम्बना यही है कि सुधार की सारी अवधारणाएं बाह्याडंबर तक सीमित हैं। यह भी ध्यान रहे कि अंतस् का सुधार बाहरी उपक्रमों से नहीं हो सकता।

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  19. बहुत बढ़िया विचार प्रस्तुत किया है भारती जी का...
    बहुत बढ़िया प्रस्तुति...!

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