Thursday, 24 December 2009

प्रेम aur अंहकार

अंहकार को ध्वंस कर..
पूर्ण श्रद्धा से..
खुद को समर्पण
करने में ही.....
चरम आनंद की
प्राप्ति की जा सकती है..!!
जबकि..
प्रेम अधिकार चाहता है..
प्रेम जो देता है..
उसके बदले में
कुछ ना कुछ पाना चाहता है..!!

Monday, 14 December 2009

त्याग

संपत्तीशाली पुरुष संपत्ती के गुलाम होते हैं. वे कभी सत्य के समर में नही आ सकते ! जो सिपाही गर्दन में सोने की ईट बांध कर लडने चलता हैं, वह कभी नही लड सकता ! उसको तो अपनी ईट की चिंता लगी रहती हैं! जब तक इन्सान ममता का त्याग नही करेगा उसका उद्देश्य कभी पुरा नही होगा !!

Sunday, 29 November 2009

खेळ

खेळ को खेळ की तरह खेलना चाहिये. खेळ इस तरह से खेलो कि निगाह जीत पर रहे, पर हार से घबराये नही, इमान को ना छोडे. जीत कर
............मुन्शी प्रेमचंद

सांय-सांय

अंत समय में जैसे क्षितिज के अथाह विस्तार में उडने वाले पक्षी की बोली प्रती क्षण मद्धम होती जाती है यहा तक कि उसके शब्द का ध्यान मात्र शेष रह जाता है, इसी प्रकार हमारी बोली धीमी होते होते केवळ सांय सांय ही रह जाती है !!


Sunday, 1 November 2009

मूलमन्त्र

मनुष्य अपना जीवन चाहे जैसा बना सकता है ! इसका मूलमन्त्र ये है कि बुरे, क्षुद्र, अश्लील विचार मन मे ना आने पाए, वह बल पूर्वक इन विचरो को हटाता रहे और उत्कृष्ट विचारो तथा भावो से अपने हृदय को पवित्र रखे ! ...... मुंशी प्रेम चंद

नाच

देवताओ का नाच देखना है तो - देखो वृक्ष कि पत्तियो पर निर्मल चन्द्र की किरनो का नाच, तालाब मे कमल के फूल पर पानी की बूँदो का नाच, जंगल मे देखो मोर कैसे पंख फैला नाचता है !
पिशाचो का नाच देखना है तो - देखो दरिद्र पडोसी ज़मिदार के जूते खा कर कैसा नाचता है ! अनाथ बालक क्षुधा से बावले हो कैसे नाचते है ! घरो मे विधवा की आँखो मे वेदना और आसुओ का नाच, मन मे कपट और छल का नाच ! सारा संसार न्रित्यशाला है !! ...... मुंशी प्रेम चंद

Thursday, 22 October 2009

मुंशी प्रेम चंद

१.बचपन में माँ का प्यार ना मिलने पर जिंदगी की वह उम्र, जब इंसान को मुहोब्बत की सबसे ज्यादा जरुरत होती है....बचपन है. उस वक्त पौधे को पानी मिल जाए तो जिंदगी भर के लिए उसकी जड़े मजबूत हो जाती है. उस वक्त खुराक ना पाकर उसकी जिंदगी खुश्क हो जाती है. मेरी माँ के मुझसे दूर होने से मेरी रूह को भी खुराक नहीं मिली. वही भूख मेरी जिंदगी है॥!!

२. कयी बार प्रकृती भी अपना काम बखुबी करती है.. जैसे अपने और तमाम जंगली फूल पौधो को, जिनकी सेवा टेहल के लिये कोई माली नही होता उन्हे नष्ट होने से बचाती है.

३। मेरा जीवन एक सपाट समतल मैदान है...जिसमे कहीं कहीं गद्धे तो है, पर टीलो, पर्वतो, घने जन्गलो, गहरी घाटियो और खंडारो का स्थान नही है ! जो सज्जन पहाडो के शौकीन हो, उन्हे निराशा होगी !!

४. मेरी जिंदगी मे ऐसा है ही क्या जो मै किसी को सुनाऊ, बिलकुल सीधे - सपाट जिंदगी है, जैसे देश के करोडो लोग जीते है ! एक सीधा साधा ग्रहस्थि के पचडो में पडा हुआ इन्सान, तंग्दस्त, मुदरीस ! मै तो नदी के किनारे खडा हुआ नरकुल हुं, हवा के थपेडो से मेरे अंदर भी आवाज पैदा हो जाती है ! मेरे पास अपना कुछ नही है, जो कुछ है, उन हवाओ का है जो मेरे भीतर बजती है , और जो बजा, महसूस हुआ, मेरी लेखनी में उतर आया !!

५। हमारा अंत समय कैसा बलवान होता है, कि ऐसे ऐसे अहितकारियो को भी समीप खींच लाता है की जो कुछ दिन पूर्व हमारा मुह नही देखना चाहते, जिन्हे संसार की कोई शक्ती पराजित न कर सकती हो, लेकिन समय ऐसा बलवान की बडे बडे बलवान शत्रुओ को हमारे आधीन कर देता है !! जिन पर कभी हम विजय नही पा सकते उन पर हमको ये समय विजयी बना देता है ! जिन पर हम किसी शक्ती से अधिकार नही पा सकते, उन पर समय शरीर के शक्तिहीन हो जाने पर भी हमको विजयी बना देता है॥

६. अंत समय में जैसे क्षितिज के अथाह विस्तार में उडने वाले पक्षी की बोली प्रती क्षण मद्धम होती जाती है यहा तक कि उसके शब्द का ध्यान मात्र शेष रह जाता है, इसी प्रकार हमारी बोली धीमी होते होते केवळ साये साये ही रह जाती है !!